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ग़ज़ल
ख़ूँ रुलाती है तिरी हसरत-ए-दीदार मुझे
तेरी फ़ुर्क़त ने किया जान से बेज़ार मुझे
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
कहाँ ले जाएगी देखूँ ये मेरी आरज़ू मुझ को
लिए फिरती है हर जानिब तुम्हारी जुस्तुजू मुझ को
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
हुई सर-गश्ता ख़ाक अपनी ग़ुबार-ए-कारवाँ हो कर
मुझे क़िस्मत सताती है रक़ीब-ए-कामराँ हो कर
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
होती है आफ़त-ए-ख़त क़हर-ए-ख़ुदा से नाज़िल
ये सनम हम पे जो बेदाद किया करते हैं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
ऐ बुत-ए-खूँ-ख़्वार इक ज़ख़्मी तिरे कूचे में था
सो कई दिन से ख़ुदा जाने वो घायल क्या हुआ
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
होगा पुर-नूर सियह-ख़ाना हमारे दिल का
इस में तुम ग़ौस-ए-ख़ुदा को ज़रा आ जाने दो
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
याँ कुछ अस्बाब के हम बंदे ही मुहताज नहीं
न ज़बाँ हो तो कहाँ नाम-ए-ख़ुदा पैदा हो